Sunday, August 9, 2009

पॉलिटिक्स मिन्स कर लो देश मुठ्ठी में...........


राजनीति का अर्थ है राजनेताओं द्वारा अपनी मर्जी से देश को चलाना,राजनीति के इस अर्थ का कहीं वर्णन नही किया गया बल्कि ये भारत के राजनेताओं की सोच से बनाया गया है। भारत के राजनेताओ को एक बार गद्दी मिल जाये बस फिर क्या है फिर तो वो देश को चलाने लग जाते हैं। ये राजनेता देश के प्रशासन को अपने अनुसार चलाने की कोशिश करते है। देश के प्रशासनिक अधिकारियों को अपनी मुठ्ठी में बंद करके रखना चाहते है। और उन्हे अपने कहे के अनुसार चलाते है और जो अधिकारी इनके कहे के अनुसार नही चलते उनके साथ ये कुछ भी कर सकते है। ये उनका तबादला कराने ज़रा भी समय नही गंवाते, कई बार तो ये नेता उन अधिकारियों के साथ मारपीट तक कर देते है। एक ऐसा ही मामला 27 जुलाई 09 को उत्तरप्रदेश के वाराणसी में घटा जहां पर समाजवादी पार्टी के विधायक एडीएम ऑफिस अपना हैसियत पत्र बनवाने गये थे। विधायक अपनी मर्जी के अनुसार अपना हैसियत पत्र बनवाना चाहता था लेकिन एडीएम आर.के.सिंह के मना करने पर वो भड़क गया। फिर क्या था वो एडीएम के साथ गाली गलौच करने के साथ ही मारपीट की। दूसरा किस्सा आन्ध्राप्रदेश का एक सांसद का है। जिसने की एक ग्रामीण बैंक के मैनेजर पर इसलिए थप्पड़ मारा क्योंकि मैनेजर ने सांसद के कहे के अनुसार दलित श्रण जारी नही किया।
वही बात देश के सिस्टम को मनमर्जी से चलाने की, की जाये तो आपको शायद याद होगा कि कुछ महीनों पहले पटना में एक राजनेता को हवाई अड्डा पहुंचने में देर हो गई थी और फ्लाईट ने उसके पहुंचने से पहले ही उडान भर ली थी। जिसको लेकर के राजनेता ने सम्बंधित एयरलाईंस के मैनेजर से बदतमिजी करने लगा और बात हाथापाई तक पहुंच गई थी। ये कोई नई बात नही है ऐसा तो कई बार होता है कि नेता फ्लाईटों को प्रतिक्षा करवाते हैं। अनेको बार हवाई जहाजें देर से उडान भरती हैं। आप अंदाजा लगा सकते है कि बाकि लोग जो फ्लाइट से सफर कर रहे है उनको कितना नुक्सान हो रहा होगा। छोटी मोटी घटनाएं तो आप कही भी देख सकते है कि राजनेता किस प्रकार से कानुन तोड़कर के अपनी जिन्दगी जीते हैं। कही दूर जाने की जरुरत नही आपने कई बार देखा होगा कि किस प्रकार से हम किसी चौराहे पर रेड लाईट हो जाने पर खड़े रहते है और नेता की गाडी पीछे से आती है और रेड लाईट होने के बावजूद भी उसकी गाडी निकल जाती है। उस वक्त कोई पुलिस वाला उसकी गाडी को ना तो रोकता और ना ही उसका चालान काटा जाता। एक ऐसा ही मामला ओर है एक सांसद ने हाल ही के दिनों में प्रधानमंत्री के मोटरसाईकिल के काफिले में घुस कर के सुरक्षा घेरा तोड़ने की कोशिश की। फिर उन्होने तर्क दिया कि उसे भी संसद में समय पर पहुंचने का उतना ही हक है जितना देश के प्रधानमंत्री को। प्रधानमंत्री भी तो मूल रुप से एक सांसद ही है। अगर ये कहा जाये कि देश के सिस्टम को तोड़ने वाले देश के नेता है तो कोई गलत नही होगा।

Wednesday, June 24, 2009

जवान करो भारत को….........


अगर भारत के युवाओं से ये पूछा जाए, कि आप क्या बनना चाहते हो तो अधिकतर का जवाब ये ही होगा कि मैं एक डॉक्टर, इंजीनियर या एक अच्छा बिजनेस मैन बनना चाहता हूँ। जब इनसे पूछा जाये कि तुम डॉक्टर या बिजनेस मैन ही क्यों बनना चाहते हो तो उनका जवाब होगा कि मैं जनता की सेवा करना चाहता हूँ। देश के विकास मे योगदान देना चाहता हुं। लेकिन मैं इनकी बातों से सहमत नही हूँ। मै ये सोच कर परेशान हूँ, क्या लोग देश की सेवा एक अच्छा राजनेता बनके नही कर सकते है। मेरा हमेशा से ये ही प्रश्न रहा है कि एक युवा भारतीय डॉक्टर क्यों बनना चाहता है राजनेता क्यों नही।

आज देश का हर नागरिक जानता है कि हमारे भारत देश कि राजनीति बहुत गंदी हो चुकी हैं, लेकिन इस गंदी राजनीति को सुधारने के लिए कोई कदम नही उठाना चाहता। अगर आप कहते है कि हमारे देश की राजनीति गंदी है तो आपको ये कहने का कोई हक नही क्योंकि आपको पता होना चाहिए कि देश की राजनीति को गंदी करने के लिए ज़िम्मेदार भी हम ही हैं,और कोई नहीं। आज स्कुलों में बच्चों को एक अच्छा डॉक्टर, इंजीनियर, एक बिजनेसमैन बनने की शिक्षा दी जाती है, एक राजनेता बनने की क्यों नही। अगर हमे अपने देश की राजनीति सुधारनी है, तो आज हमारे देश में 70 फीसदी लोग 35 वर्ष से कम उम्र के है। ये आबादी बहुत कुछ कर सकती है अगर इन्हे सही गाईडेंन्स मिले तो क्योंकि यह युवा पीढ़ी पुराने आग्रहों और रूढि़यों से मुक्त है। यह आबादी सूचना क्रांति और ग्लोबलाइजेशन के दौर में पैदा हुई है, इसलिए इनकी सोच का अलग है। यह पीढ़ी पॉलिटिक्स और लीडरशिप के बारे में पुरानी पीढ़ी की राय थी उनसे अलग राय रखती है। ये आबादी बूढें हो चुके लालकृष्ण आडवाणी जैसे भेड़ियों की बजाय जवान शेर राहुल गांधी से कुछ ज्यादा उपेक्षा रखती है।

भारत देश के विकास का सबसे शक्तिशाली साधन एक युवा है।...भारतीय राजनीति की विंडबना है कि उच्च पदों की चढ़ाई एवरेस्ट की चढ़ाई करने जैसा है। जब तक चोटी के नजदीक पहुँचते हैं शरीर जर्जर हो जाता है। जब वर्तमान समय में हमारे देश की सत्तर प्रतिशत आबादी 35 वर्ष से कम की है तो हमारे देश को एक युवा राष्ट्र की संज्ञा दी जा रही है।

ऐसा सपना लेकर कर के कुछ लोग अपने काम में जुटे पडे हैं। वो लोग बिना किसी की परवाह किए अपने दिलो जान से लगे हैं। उनकी आँखों में केवल भारत की राजनीति को सुधारने का सपना है बल्कि भारत को एक युवा विकसीत देश का दर्जा दिलाने का सपना है। ऐसे में हम राहुल गाँधी, सचिन पायलट,उमर अब्दुला, शैलजा कुमारी, प्रियंका गाँधी, प्रिया दत, नविन जिंदल, जितिन प्रसाद, मिलिन्द देबडा जैसे लोगों का नाम ले सकते हैं। ये वो नेता है जो भारत की पुरी छवी बदल कर रखना चाहते है। हमारा साथ इन लोगों की राह को थोडा आसान बना सकता है। अत: मैं हर एक भारतीय युवा से ये ही कहुंगा कि बुढें भेडियों का साथ छोड़ो। अब अपने भारत देश को जवान कर डालो। अगर देश में राहुल गाँधी जैसे नेता पैदा होते रहे तो वो दिन दुर नही जिस दिन हम गर्व से कहेंगें कि हम विश्व की एकमात्र देश की महान शक्ती भारत देश के नागरिक है.।

Monday, June 1, 2009

संबंध सुहाना है


है प्रेम से जग प्यारा, सुंदर है सुहाना है जिस ओर नज़र जाए, बस प्रेम-तराना है बादल का सागर से, सागर का धरती से धरती का अंबर से, संबंध सुहाना है तारों का चंदा से, चंदा का सूरज से सूरज का किरणों से, संबंध सुहाना है सखियों का राधा से, राधा का मोहन से मोहन का मुरली से, संबंध सुहाना है पेड़ों का पत्तों से, पत्तों का फूलों से फूलों का खुशबू से, संबंध सुहाना है जन-जन में प्रेम झलके, हर मन में प्रेम छलके मन का इस छलकन से, संबंध सुहाना है।


लीला तिवानी

Sunday, May 31, 2009

मतदाताओं में झलकी जागरुकता............


देश मे 15लोकसभा का परिणाम आ चुका है। देश के मतदाताओं ने समाचार पत्रों, टी.वी. चैनलों, राजनीतिक विश्लेषकों और भविष्य वक्ताओं के अनुमानों को ध्वस्त कर दिया हैं। तीसरा मोर्चा, और न जाने कितने नेता जो सरकार बनाने और प्रधानमंत्री की कुर्सी पर ताज पहने बैठने के सपने संजोये थे अब उन्हे चेहरा छिपाने को भी जगह नही मिल रही। सबसे बड़ी खुशी की बात तो यह है कि भारत के जागरुक मतदाताओं ने जाति और धर्म से ऊपर उठकर राष्ट्रहित को ध्यान में रखकर अपने वोट का प्रयोग किया है। अब यूपीए की सरकार बनी है जिससे आशा है कि यह काफी हद तक स्थाई रहेगी और चुनावों से पहले जनता से किए वादो को पुरा करने की कोशिश करेगी।
मतदातओ की जगरुकता ने उन नेताओं और दलों का भ्रम तोड दिया जो अपने आप को जातियों के सबसे बडे हितैषी समझते थे या जो जातीवाद के आधार पर वोट बटोरते थे। जनता ने धार्मिक भावनाएं भड़का कर जीतने वालों और धर्म या जाति के सहारे राजनीति करने वालों का सफाया कर दिया। नेता होने की धोंश मे सरकारी संसाधनों का दुरुपयोग करने वालों को भी जनता ने किनारे कर दिया। जनता के वोट की बदौलत सरकारों में बाहर से या भीतर से समर्थन देकर ब्लैकमेलिंग की राजनीति करने वाले नेताओं को भी भारत के मतदाताओं ने बाहर का रास्ता दिखा दिया है और अब वे नेता औऱ उनके समूह बचते फिर रहे हैं।
चुनाव परिणामों से पता चलता है कि मतदाता कट्टरतावाद और साम्प्रदायिकता के विरुद्ध हैं। कट्टरतावादी चाहे किसी भी धर्म से सम्बन्धित हो वो हिन्दू हो या मुसलमान हो या इनमें से किसी वर्ग को सपोर्ट करता हो, मतदाताओं उन्हें भी नकार चुके हैं। मतदातओं ने उस दल को अपना मत दिया है जो उनके लिए विकास के कार्य कर सके। यूपीए सरकार ने पिछले 5 सालों में बहुत ही जनहीत के कार्य किऐ हैं इसमे शक की कोई गुंजाईश नही है। इसलिए कांग्रेस इस चुनाव में सबसे बडे़ दल के रुप में प्रकट हुई हैं।
इन चुनाव परिणामों से पता चलता है कि नेताओं और दलों को अपनी विचारधारा और नीतियों को बदलना पड़ेगा। उन्हे अपनी नीतिया जनता के हित में बनानी होगी तभी मतदाताओं की नज़रों मे अपनी छवी अच्छी बना सकते हैं। अन्यथा जनता यूं ही उन्हे नकारती रहेगी। अब समय आ गया है कि राजनीतिक पार्टीयां भारत देश के मतदाताओं को समझें।

हार बन सकती है एनडीए में टूट का कारण......




लोकसभा चुनावों मे हार के बाद एनडीए के नेता हार का ठिकरा एक दूसरे के सिर पर फोड़ने में लगे है मोटे तौर पर हार के लिए पार्टी की आंतरिक कलह, उम्मीदवारों का गलत चयन, गुटबाजी और वरुण गाँधी के कथित हिंदुत्व को जिम्मेदार माना जा रहा हैं। सवाल आडवाणी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारी को लेकर भी उठ रहे है। वैसे आखिर मे पार्टी की पूरी कमान तो आडवाणी के करीबी लोगो के हाथ मे ही थी लेकिन हार की जिम्मेदारी लेने को कोई तैयार नही है। राजस्थान,एम.पी. यूपी,महाराष्ट्र और उत्तराखंड में आशा से कम मिली सीटों ने तो भाजपा का गणित ही हिला के रख दिया। इससे एनडीए मे टूट का खतरा पैदा हो गया। पार्टी का हर कार्यकर्ता हार के अलग-अलग कारण गिनाने मे लगे हैं सार्वजनिक रुप मे माना जा रहा है कि पार्टी की अंदरुनी कलह पार्टी को ले डूबी। राजस्थान,दिल्ली एम.पी. यूपी,महाराष्ट्र और उत्तराखंड में उम्मीदवारों के चयन मे काफी खिचतान हुई थी। इन राज्यों मे पार्टी को उम्मीद के मुताबिक सीटें नही मिल पाई। कुछ नेताओं का कहना है कि भले ही पीलीभीत से वरुण गाँधी जीत गये हो लेकिन उनके भडकाऊ भाषणो का पार्टी को बहुत बड़ा खामियाजा भुगतना पडा। पार्टी के चुनाव प्रचार पर भी अंगुली उठाई जा रही है। प्रचार अभियान मे ये कहना कि मनमोहन सिंह कमजोर प्रधानमंत्री है इसे गलत बताया गया है। पार्टी मे शुरु से ही फुट थी फूट का आलम ये था कि चुनावों से पहले ही नेताओं न कानाफुसी करने मे लग गये थे अब विपक्ष का नेता कौन होगा आडवाणी ने तो विपक्ष का नेता के पद के लिए मना कर दिया है। और तो और ये देखो छतीसगढ के बस्तर के संसदीय क्षैत्र से लगातार चौथी बार जीते भाजपा के सांसद बलिराम कश्यप ने कहा कि आडवाणी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रुप मे उतारना ही पार्टी की सबसे बड़ी गलती थी। बहरहाल भाजपा के कई नेताओं की नज़रे विपक्ष के नेता बनने पर टिकी है। इस दौड मे राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज, मुरली जोशी और जसवंत सिंह शामील है। इससे स्पष्ट होता है कि भाजपा मे एक ओर घमासान होने वाला है वो है विपक्ष के नेता का चुनाव।

Friday, May 1, 2009

रोड़ पर देश के नेता..........................




जब आप रोड पर लोगों का हुजुम बैनरों के साथ देखें तो ये न सोचें कि कोई आंदोलन या विरोध हो रहा है बल्कि पॉच साल के बाद अपने बिल से निकले हमारे देश के नेता हैं। ये नेता बरसाती मेंढक हैं जो कि चुनावी रुपी बरसात के वक्त टर्र-टर्र करते बाहर निकलते है। देश हो रहे लोकसभा चुनावों के कारण देश के नेता सक्रिय हो गए हैं। आज उन्हें खाना खाने तक को समय नहीं है। आज हर गली के नुक्कड़ पर नेताओं द्वारा घोषणाओं करते देखा जा सकता है। वोटरो के घरो पर वोटों के लिए भीख मांगते देखा जा सकता है। अगर हमारे देश के नेता वोटों के बाद भी ऐसे ही सक्रिय बने रहें तो इन्हें सफेद कपड़ों में लिपटकर अपना दामन छुपाने की जरूरत नहीं होगी। अगर ये नेता हमेशा ऐसे ही बने रहे तो वो दिन दूर नहीं जिसके बाद हमें यह कह कर गर्व होगा कि हम विश्व की एकमात्र महान शक्ति भारत के नागरिक हैं।

Thursday, April 23, 2009

चुनावों के मौंके पर भी भुले यमुना को ...............


लोकसभा चुनाव रुपी युद्ध मे कुदे हुए सभी दलो के प्रत्याशी अपने भाषणों में एक दुसरे को गलत साबित करने मे जुटे हुए हैं। लेकिन चुनावों में असली मुद्दो का गायब हो रहे हैं। राजधानी में पिछले विधानसभा चुनावों का मुद्दा विकास था। वही इस बार संसदीय चुनाव में पार्टीयों के पास कोई बड़ा मुद्दा नही है। वैसे तो दिल्ली में कई ऐसी समस्यायें है जो राजनीतिक पार्टीयों के एजेंडे में सबसे उपर होनी चाहीए थीं, लेकिन किसी भी दल के द्वारा उनकी सुध न ली जा रही हैं। इन चुनावो में यमुना नदी का मुद्दा भी प्रमुख है खत्म होने की कगार पर खड़ी है। कभी पूजे जाने वाली यमुना, आज नदी की बजाय बदबुदार नाला प्रतित होती है। इस सुध लेते हुए कई सरकार ने इसकी सफाई के लिए कई योजनाएं तो बनाई लेकीन उन्हे गम्भीर तरिके से नही लेने के कारण यमुना जैसे की तैसे बनी हुई है। इन योजनाओं पर कई हजार करोड़ रुपये खर्च किए जाने के बावजूद यमुना और प्रदुषित बनी रही।
यहा प्रश्न यह खड़ा होता है कि आखिर जो नदी देश की राजधानी दिल्ली के लिए जीवनदयिनी है उसके प्रति जागरुकता क्यों नहीं दिखाई गई? चुनाव के मौके पर भी राजनीतिक दलों व प्रत्याशियों के एजेंडें मे यह क्यो नही हैं? परन्तु कांग्रेस सरकार ने गंगा नदी को राष्ट्रीय नदी घोषित करके लोगो का दिल जितने की कोशिश तो की लेकिन उनकी योजना सफल होती नही दिखी। अत: उन्होने यमुना नदी को मुद्दा बनाना उचित नही समझा। इस प्रश्न का जवाब देने के लिए कौन जिम्मेदार है कि हजारों करोड़ रुपयें खर्च करने के बावजूद यमुना जस की तस क्यों बनी हुई हैं? यमुना को प्रदुषित करने वाले नालों के मुहाने पर ट्रीटमेंट प्लांट लगाने की योजना पर अब तक अमल क्यो नहीं किया? केंद्रिय प्रदुषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट ने यह बताया कि यमुना को प्रदूषित करने में सबसे बड़ी भुमिका दिल्ली की हैं, इसके बावजुद भी इस पर उचित ध्यान क्यों नही दिया गया? यमुना नदी को प्रदूषित करने के लिए हमारा धर्म और संस्कृति भी जिम्मेदार हैं। अब चुप बैठने का समय नही रहा बल्कि लोगों को जागरुकता का परिचय देते हुए प्रत्याशियों से यमुना को प्रदुषण मुक्त करने के बारे में न केवल सवाल पूछे बल्कि उसे प्रदुषण मुक्त कराने का शपथ पत्र भी। अब हमे हमारी जिवनदायिनी को बचाना है, ना कि हाथ के उपर हाथ रख कर बैठने का है।

Thursday, March 26, 2009

आज की राजनीति के स्वरुप को बदलने का संकल्प




गांधीजी का मानना था कि अच्छा साध्य बुरे साधनों से नहीं प्राप्त किया जा सकता, क्योंकी इस तरह से हासिल किया गया साध्य भी आखिर में अच्छा नही रह जाता। यही हालात आज की राजनिती की हो गई है। अब राजनिती अव्यवस्था का मुहावरा बनकर रह गई है। लोगों का कहना है कि राजनिती मत करिए। आखिर ऐसा क्यों कहते हैं लोग? इसका सबसे बड़ा कारण है राजनिती का अपराधीकरण। कल तक हमने जिसे किसी अपराधिक मामले में जेल के अंदर देखा था आज वह संसद की नेतागीरी करते दिख रहे हैं। परन्तु सवाल ये उठता है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है? आखिर उनका चुनते तो हम ही हैं। क्या हम ये नही जानते कि किस प्रत्याशी की छवी कैसी है? हो सकता है कि कुछ वोट कैप्चर कर लिए जाते हैं, लेकिन ऐसा क्यों? इसके लिए जिम्मेदार कौन है।
आज की राजनिती पहले पहले जैसी राजनिती नही है ये समय के साथ राजनिती का बदला रुप है। इसके लिए पार्टी जिम्मेदार नही है ये लोगों की सोच मे बदलाव के कारण हुआ है। नेताओं ने अपराधीयों से पैसे लेकर उन्हें टिकट दिये और अपराधी अपने अपराध को छिपाने के लिए नेता बने और जब एक शुरुआत की तो दुसरे के लिए मजबुरी बनने लगी। अपराधीयों ने खुद को बचाने के लिए नेता रुपी खाल पहनी और जो नेता थे वे खुद के नेता होने की तैश में अपराधी बन गए। इसे राजनीती का बाजारीकरण कहे तो कोई दो राय नही हैं।
केवल राजनीति मे ही अपराध नही है, अपराध तो पुरे समाज में फैला है लेकिन राजनिती में अपराधीकरण को कुछ अलग नजर से इसलिए देखा जाता है क्योंकि यह समाज के चुने हुए लोगों में है, जिनके हाथों मे समाज की कमान होती है। यह माना जाता है कि जनता अपराधियों को तब वोट देती है जब उनका विश्वास व्यवस्था पर से उठ जाये।
उन्हे लगता है कि अपराधी ही हमें न्याय दिला पाऐंगे और इसी बात से अपराधियों के हौसले बढ़ जाते है। आज से पांच साल पहले चुनाव आयोग ने राजनिती से अपराधीकरण खत्म करने के लिए कुछ उपाय सुझाऐं थें। उन उपायों पर उस समय सरकार ने विचार विर्मश किया और एक बिल तैयार किया। इस बिल में ये यह था कि अगर किसी व्यक्ति के ख़िलाफ तिन मुकदमें लंबित हों, तो वो चुनाव नहीं लड सकते लेकिन इस पर विचार विर्मश करने की बजाय इस पर राजनितीक दलों द्वारा सवालिया निशान लगा दिया। राजनितीक दल किसी व्यक्ति को महज सांसद होने के नाते गले लगाने के लिए बैचेन है तो ये उनके हित मे तो हो सकता है, लेकिन देश के लोकतांत्रिक भविष्य के लिए शुभ नही है। इसे शुभ बनाने की जिम्मेदारी जनता की है। इसके लिए कोई जंग नही लड़ना बस एक छोटा सा फैसला लेना होगा कि हम अपराधी हाथों मे देश मे न सौंपें।

Sunday, February 8, 2009

गंगा नदी भी चढ़ी कांग्रेस सरकार की वोट बैंक नीति की भेट…...................


जिस प्रकार भागीरथ ने गंगा को स्वर्ग से धरती पर लाने के लिए जोर लगाया था। उसी प्रकार केंद्र सरकार भी गंगा नदी को प्रदूषण मुक्त करने के लिए प्रयास कर रही है। सरकार ने भारत की पवित्र नदी की सुध लेते हुए इसे राष्ट्रीय नदी घोषित कर दिया। अब देश में गंगा नदी को प्रदूषण मुक्त करने और अन्य समस्याओं से निजात दिलाने के लिए एक गंगा नदी प्राधिकरण बनेगा। इसके अध्यक्ष खुद प्रधानमंत्री होगें। जिन राज्यों से होकर गंगा गुजरती है उसके मुख्यमंत्री इसके सदस्य होगें। इस नदी की साफ-सफाई का खर्चा केंद्र सरकार वहन करेगी।कांग्रेस सरकार ने लोगों का दिल जितने का अच्छा मौका देखा है। छह
राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश, दिल्ली, जम्मू-कश्मीर, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में हुए विधानसभा चुनावों तथा नजदीक आ रहे लोकसभा चुनावों के चलते कांग्रेस सरकार ने यह चाल चली है। गंगा नदी को राष्ट्रीय नदी घोषित करने के पीछे राजनीति का खेल है। यह कांग्रेस सरकार की वोट वटोरने की निती के अन्तर्गत हुआ है। गंगा नदी सदियों से भारत की शान रही है। यह हिन्दू धर्म की पवित्र नदी मानी जाती है। हिन्दुओं का दिल जितने के लिए सरकार ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया है। गंगा नदी तो वैसे ही हर भारतीय की नदी है। गंगा नदी को बचाने के लिए अनेक वर्षों से आंदोलन चल रहे हैं। इसमे गंगा बचाओ आंदोलन मुख्य रहा। तब कांग्रेस सरकार सक्रिय क्यों नही हुई। 1985 में शुरू हुए गंगा कार्य योजना को क्यों नहीं सुधारा गया। इस योजना पर अरबों रुपये लगने के बाद भी गंगा मैली बनी हुई है। आज चुनावों के नजदीक आने पर ही सरकार को गंगा कैसे याद आई है। यह हिन्दुओं के दिल मे कांग्रेस सरकार की अच्छी छवि बनाने की अच्छी तरकीब है। समय-समय पर गंगा को बचाने के लिए सामाजिक संगठनों ने अनेक बार रुचि दिखाई। उससे न तो राजनीतिक तंत्र झकझोरा जा सका और न ही प्रशासन तंत्र। इस बात को देखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि यह वोट बैंक की नीति से वोट बटोरने की चाल है। ऐसी कोशिशें पहले भी कई बार की जा चुकी है। परन्तु क्या प्रदूषण मुक्त हो सकी। हमेशा योजनायें लागू कर दी जाती है। परन्तु उन पर अमल नहीं किया जाता। गंगा नदी को राष्ट्रीय नदी घोषित करके गंगा नदी प्राधिकरण बनाने का फैसला स्वागत योग्य है, परन्तु क्या इसकी कोई गारन्टी कि इसका वैसा नहीं होगा, जैसा 1985 में शुरू की गई गंगा योजना का हुआ। 1985 में शुरू की गई गंगा कार्य योजना में अब तक दो हजार करोड़ रुपये और 23 साल बीत चुके हैं, परन्तु गंगा नदी वैसे की वैसे ही मैली बनी हुई है। कुछ स्थानों पर तो इतनी दूषित हो गई कि पानी पीने योग्य तो दूर, नहाने और सिंचाई करने योग्य भी नहीं रहा। तमाम रोक और विरोध के बावजूद इसमें कारखाने विषाक्त पदार्थ डालने मे लगे हैं। गंगा नदी को प्रदूषित करने में न केवल कारखानों का ही हाथ है, बल्कि इसके लिए हमारा धर्म और संस्कृति भी जिम्मेदार हैं। गंगा नदी को जन जागरुकता और कड़े कानून के जरिए ही राष्ट्रीय प्राधिकरण गंगा फिर से पवित्र बना सकता है, सिर्फ कागजी घोषणाओं से कुछ नहीं होगा।